जैसलमेर राजस्थान के पर्यटक स्थल

                                                                  जैसलमेर

किले और हवेलियों का शहर



पर्यटन के त्रिकोणीय सर्किट का महत्वपूर्ण शहर जैसलमेर जहाँ राजस्थान में आने वाला हरेक देशी और विदेशी पर्यटक अपने ट्रिप में जैसलमेर को शामिल करना नहीं भूलता। ‘धरती धोरां री’ गीत जैसलमेर के धोरों के लिए उपयुक्त नज़र आता है। थार मरूस्थल के बीच बसा जैसलमेर, अपनी पीले पत्थर की इमारतों और रेत के धोरों पर ऊँटों की कतारों के लिए विशेषकर विदेशी पर्यटकों के लिए सुनहरी याद बन जाता है। किलों का नगर - अगर आपकी रूचि भूविज्ञान में है तो जैसलमेर आपकी पहली पसंद होगा। जोधपुर से लगभग 15 कि.मी. दूर स्थित ’अक़क्ल वुड’ फॉसिल पार्क में आप 180 मिलियन वर्ष पूर्व थार रेगिस्तान की भूगर्भीय घटनाओं और परिवर्तनों को जान सकते हैं।‘गोल्डन सिटी’ के नाम से लोकप्रिय जैसलमेर पाकिस्तान की सीमा और थार रेगिस्तान के निकट पश्चिमी राजस्थान और भारत के सीमा प्रहरी के रूप में कार्य करता है। शहर का सबसे प्रमुख आकर्षण है जैसलमेर का क़िला, जिसे सोनार किला (द गोल्डन फोर्ट) भी कहा जाता है। भारत के अधिकांश अन्य क़िलों से अलग जैसलमेर के क़िले मात्र पर्यटन आकर्षण ही नहीं हैं, इनके भीतर दुकानें, होटल और प्राचीन हवेलियाँ (घर) आज भी मौजूद हैं, जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी लोग रहते आ रहे हैं। जैसलमेर का इतिहास - 12वीं शताब्दी पूर्व से मिलता है जैसलमेर का इतिहास। देवराज के रावल और सबसे बड़े वारिस रावल जैसल के एक छोटे सौतेले भाई को लोदुरवा का सिंहासन दे दिया गया था।अतः वे अपना राज्य स्थापित करने के लिए नया स्थान खोजने लगे। जब वे ऋषि ईसल के पास आए तब ऋषि ने उन्हें भगवान कृष्ण की उस भविष्यवाणी के बारे में बताया। जिसमें कहा गया था कि यदुवंश के वंशज इस स्थान पर एक नया राज्य बनाएंगे। 1156 में रावल जैसल ने यहां एक मिट्टी के क़िले का निर्माण करवाया, जिसका नाम जैसलमेर रखा और उन्होंने इसे अपनी राजधानी घोषित कर दिया। वक़्त के थपेड़े खाने के बावजूद, यहाँ की कला, संस्कृति, क़िले, हवेलियाँ और सोने जैसी माटी, बार बार जैसलमेर आने के लिए आमंत्रित करती है। यहाँ की रेत के कण-कण में पिछले आठ सौ वर्षों के इतिहास की गाथाएं छिपी हुई हैं।

                                                               सोनार क़िला


यह क़िला एक वर्ल्ड हैरिटेज साइट है। थार मरूस्थल के ’त्रिकुटा पर्वत’ पर खड़ा यह क़िला बहुत सी ऐतिहासिक लड़ाईयाँ देख चुका है। सूरज की रोशनी जब इस क़िले पर पड़ती है तो यह पीले बलुआ पत्थर से बना होने के कारण, सोने जैसा चमकता है। इसीलिए इसे ’सोनार क़िला’ या ’गोल्डन फोर्ट’ कहते हैं। अस्तांचल में जाता सूर्य भी अपने उजास से क़िले को रहस्यपूर्ण बना देता है। बेजोड़ शैली में निर्मित यह क़िला स्थानीय कारीगरों द्वारा शाही परिवार के लिए बनाया गया था। सोनार किला एक विश्व धरोहर स्थल है। महान फिल्मकार सत्यजीत रे की प्रसिद्ध फिल्म ’फेलुदा’ में सोनार क़िला (द गोल्डन फोर्ट) का विशेष उल्लेख है। इसके अलावा भी यहाँ बहुत सी फिल्मों की शूटिंग की गई है। इस क़िले के सामने, प्रतिवर्ष, राजस्थान पर्यटन विभाग द्वारा, फरवरी माह में डैजर्ट फैस्टिवल मनाया जाता है। इस उत्सव में ऊँट दौड़, ऊँट श्रृंगार, ऊँट सजावट, ऊँटनी का दूध निकालने की प्रतियोगिता, पगड़ी बाँधने की प्रतियोगिता तथा विभिन्न प्रकार के नृत्य व संगीत के कार्यक्रम होते हैं। इस उत्सव में हज़ारों की संख्या में देशी व विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं।

                                              जैसलमेर सरकारी संग्रहालय



पुरातत्व और संग्रहालय विभाग द्वारा स्थापित यह संग्रहालय जैसलमेर आने वाले पर्यटकों के लिए प्रमुख आकर्षण का केन्द्र है।सबसे मुख्य यहाँ प्रदर्शित राजस्थान के राज्य पक्षी ’गोडावण’ की ट्रॉफी है। यहाँ पर 7वीं और 9वीं शताब्दी ईस्वी की परम्परागत घरेलू वस्तुओं, रॉक-कट क्रॉकरी, आभूषण और प्रतिमाएं शहर के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के अवशेष प्रदर्शित हैं।

                                                  नथमल जी की हवेली



दीवान मोहता नथमल, जो कि जैसलमेर राज्य में प्रधान मंत्री थे, उनके रहने के लिए यह हवेली बनाई गई थी। महारावल बेरीसाल द्वारा निर्मित, तथा दो भाईयों-हाथी और लूलू, जो कि बहुत ही जबरदस्त वास्तुकार थे, उन्होंने ही इस हवेली की वास्तुकला में सहयोग किया। मेन गेट पर दो पत्थर के हाथी देखकर लगता है कि आपके स्वागत के लिए खड़े हैं। 19वीं शताब्दी में दो वास्तुकार भाईयों ने ’नथमल जी की हवेली’ का निर्माण किया। उन्होंने दो तरफ से हवेली पर काम किया और इसका परिणाम सम विभाजित संरचना के एक संुदर रूप में सामने आया। मिनिएचर शैली के चित्रों और पीले बलुआ पत्थर पर नक़्काशीदार हाथी सजावट के लिए प्रयोग किये गये हैं। इस हवेली का प्रारूप तथा नक़्काशी अन्य सभी हवेलियों से अलग हैं।


                                              सालिम सिंह की हवेली



जैसलमेर रेल्वे स्टेशन के नज़दीक, यह हवेली मोर के पंखों जैसी गोलाई लिए छज्जों और मेहराबों से सजी है। तीन सौ साल पुरानी यह हवेली, जैसलमेर के एक दुर्र्जेय प्रधानमंत्री सालिम सिंह का निवास था। यह हवेली 18वीं शताब्दी के आरंभ में बनाई गयी थी और इसका एक हिस्सा अब भी इसके वंशजों के अधीन है। ऊंचे मेहराबदार छत में खाँचे बांटकर मोर के आकार से अलंकरण तैयार किये गये हैं।  किंवदंती है कि वहाँ दो लकड़ी की मंजिलंे और थीं जो इसे महाराजा के महल के समान ऊँचाई प्रदान करती थीं। लेकिन उन्होंने इसको ध्वस्त करने का आदेश दे दिया था। स्वर्ण आभूषणों जैसी इस हवेली को पर्यटक बड़े विस्मय से देखते हैं तथा इसकी ढेरों तस्वीरें लेते हैं।

                                                     पटवों की हवेली



इस हवेली के अन्दर पाँच हवेलियाँ हैं जो कि गुमान चंद पटवा ने अपने पाँच बेटों के लिए, 1805 ई. में बनवाई थी। इसे बनाने में 50 साल लग गए थे। जैसलमेर में सबसे बड़ी और सबसे ख़ूबसूरत नक़्काशीदार हवेली, यह पांच मंज़िला संरचना एक संकरी गली में गर्व से खड़ी है।यद्यपि हवेली अब अपनी उस भव्य महिमा को खो चुकी है, तथापि कुछ चित्रकारी और काँच का काम अभी भी अंदर की दीवारों पर देखा जा सकता है। पर्यटक इस हवेली को देखने के लिए पैदल या रिक्शे में ही आ सकते हैं, क्योंकि यह पतली गली के अन्दर है।

                                                        मंदिर पैलेस



इसे ’ताज़िया टॉवर’ भी कहते हैं। बिल्कुल ताज़िए के शेप में यह महल, एक के ऊपर एक मंजिल के साथ खड़ा है। दो सौ साल तक यह महल, जैसलमेर के शासकों का निवास स्थान था। इसके ’बादल विलास’ नाम के हिस्से को, शहर की सबसे ऊँची इमारत माना जाता है। बादल महल (क्वाउड पैलेस) की पांच मंजिली वास्तु संरचना को इसके पगोड़ा सृदशा ताज़िया टॉवर द्वारा आगे बढ़ाया गया है। महल की प्रत्येक मंजिल में एक अद्भुत नक़्काशीदार छज्जा है।’बादल पैलेस’ मुस्लिम कारीगरों की कला कौशल का एक बेहतरीन नमूना है, जिसमें ताज़िया के आकार में टॉवर को ढाला गया है। अब यह मंदिर पैलेस पर्यटकों के लिए, हैरिटेज होटल के रूप में संचालित किया जा रहा है, जहाँ रहकर पर्यटक स्वयं को महाराजा और महारानी महसूस करते हैं।

                                                   जैसलमेर के जैन मंदिर




जैसलमेर में बने जैन मंदिरों में कला की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ’लौद्रवा जैन मन्दिर’। दूर से इसका भव्य शिख़र नजर आता है। इसमें लगे कल्प वृक्ष के बारे में मान्यता है कि इसे छूकर जो भी मन्नत मांगी जाती है, वह पूरी हो जाती है। मंदिर के गर्भगृह में ’सहसफण पाशर््वनाथ’ की श्याम मूर्ति है, जो कि कसौटी पत्थर से बनी हुई है। जैसलमेर के क़िले के अंदर स्थित जैन मंदिर 12वीं और 15वीं शताब्दियों तक के माने जाते हैं। ये मंदिर ऋषभदेव जी आौर शंभवदेव जी, प्रसिद्ध जैन संतों के रूप में जाना जाता है, जिन्हें तीर्थंकर कहा जाता है।विवेकशील शिक्षक जो लोगों को निर्वाण का मार्ग बताते हैं, को समर्पित है। जैसलमेर की अन्य सभी संरचनाओं की तरह, इन मंदिरों को भी पीले बलुआ पत्थर से बनाया गया है। प्रसिद्ध दिलवाड़ा शैली में बने इन मंदिरों को इनकी संुदर वास्तुकला के लिए जाना जाता है। जैन समाज के अनुयायी जैसलमेर की यात्रा को तीर्थ यात्रा मानते हैं। यहाँ दुर्ग के अन्दर भी सात आठ जैन मंदिर है।


                                                        गड़ीसर झील



जैसलमेर के पहले राजा रावल जैसल द्वारा यह झील 14वीं सदी में बनवाई थी। कुछ वर्षों बाद महाराजा गड़सीसर सिंह द्वारा इसे पुननिर्मित करवाया गया। जैसलमेर के दक्षिण की ओर यह झील ’तिलों की पोल’ क्षेत्र में बनी है।जो एक सुन्दर नक़्काशीदार, पीले पत्थर के गेट के अन्दर जाकर नज़र आती है। इसके आसपास कई छोटे मंदिर और तीर्थस्थल, इस झील के आकर्षण को दोगुना कर देते हैं। यहाँ आकर देशी व विदेशी पर्यटकों के लिए मनोरंजन और आकर्षण बढ़ जाता है।

                                                              बड़ा बाग



यह एक विशाल पार्क है तथा यह भाटी राजाओं की स्मृतियों को समेटे हुए है। बड़ा बाग जैसलमेर के उत्तर में 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जिसे ’बरबाग़’ भी कहा जाता है। इस बगीचे में जैसलमेर राज्य के पूर्व महाराजाओं जैसे जय सिंह द्वितीय सहित, राजाओं की शाही छतरियां हैं। उद्यान का स्थान ऐसी जगह है कि यहां से पर्यटकों को सूर्यास्त का अद्भुत दृश्य भी देखने को मिलता है।जैसलमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय (1688-1743) ने एक बाँध बनवाया था, जिसके कारण जैसलमेर का काफी हिस्सा हरा भरा हो गया था। उनकी मृत्यु के बाद 1743 में उनके पुत्र लूणकरण ने अपने पिता की छतरी यहाँ बनवाई थी। उसके बाद अन्य राजाओं की मृत्यु के बाद उनकी भी छतरियाँ यहाँ बनाई गईं।

                                                    डेज़र्ट नेशनल पार्क



थार रेगिस्तान के विभिन्न वन्यजीवों का सबसे अच्छा पार्क है। पार्क में रेत के टीले, यत्र तत्र चट्टानों, नमक झीलों और अंतर मध्यवर्ती क्षेत्रों का गठन किया गया है। जानवरों की विभिन्न प्रजातियां जैसे काले हिरण, चिंकारा और रेगिस्तान में पाई जाने वाली लोमड़ी, ये सब पार्क में विचरण करते हैं। अत्यधिक लुप्तप्रायः ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, जो दुनिया का सबसे बड़ी उड़ान भरने वाले पक्षियों में से एक है, उसे भी यहां देखा जा सकता है। सर्दियों में पार्क में विविध जीव जैसे हिमालयी और यूरेपियन ग्रिफोन वाल्टर्स, पूर्वी इंपीरियल ईगल और ’स्केलेर फॉल्कन’ पक्षी यहां विहार करते हैं। यह नैशनल पार्क जैसलमेर से 40 कि.मी. की दूरी पर है तथा पर्यटकों के देखने लायक़ हैं।


                                                            कुलधरा



पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा इन गाँवों का निर्माण लगभग 13वीं शताब्दी में माना जाता है। इन गाँवों के खण्डहरों को देख कर लगता है कि इनकी बहुत ही बढ़िया वास्तुकला रही होगी। सुनसान जंगल के बीच, काफी बड़े क्षेत्र में फैले, खण्डहरों में आधी अधूरी दीवारें, दरवाज़े, खिड़कियाँ दिखाई देते हैं। मध्ययुगीन 84 गांव थे जिनको पालीवाल ब्राह्मणों ने रातों रात छोड़ दिया था। उनमें से दो सबसे प्रमुख ’कुलधरा’ और ’खावा’, जैसलमेर के दक्षिण पश्चिम से क्रमशः लगभग 18 और 30 किलोमीटर दूर स्थित है। कुलधरा और खावा के खंडहर उस युग की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।इनके बारे में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं। लेकिन इस सम्बन्ध में कोई भी सच ज्ञात नहीं है कि बड़े पैमाने पर गांवों का पलायन क्यों हुआ। ग्रामीणों का मानना है कि यह जगह शापित है और आतंक के डर से यहां बसावट नहीं होती। वर्तमान में यह स्थान एक प्रमुख पर्यटन आकर्षण है। जैसलमेर घूमने आने वाले पर्यटक, इन गाँवों की कहानियाँ सुनकर, यहाँ देखने ज़रूर आते हैं।

                                                        तन्नोट माता मंदिर



भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने वि.सं. 828 में तन्नोट माता का मंदिर बनवा कर, मूर्ति की स्थापना की थी। यहाँ आस पास के सभी गाँवों के लोग तथा विशेषकर, बीएसएफ के जवान यहां पूर्ण श्रृद्धा के साथ पूजा अर्चना करते हैं। जैसलमेर से क़रीब 120 किलोमीटर दूर ’तन्नोट माता’ मंदिर है। तन्नोट माता को देवी हिंगलाज़ का पुनर्जन्म माना जाता है।1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान, तन्नोट में हुए भारी हमले और गोलाबारी की कई कहानियाँ है। हालांकि मंदिर में गोले या बमों में से कोई भी विस्फोट नहीं हुआ। इससे लोगों की आस्था को बल मिला युद्ध के बाद से इस मंदिर का पुनर्निर्माण व प्रबंधन सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ ट्रस्ट) द्वारा किया जाता है। तन्नोट माता का एक रूप ’हिंगलाज माता’ का माना जाता है, जो कि वर्तमान में बलूचिस्तान (पाकिस्तान) में स्थापित है।

                                                         रामदेवरा मंदिर



रूणीचा बाबा रामदेव और रामसा पीर का पुण्य स्थान है ’रामदेवरा मंदिर’। इन्हें सभी धर्मों के लोग पूजते हैं। रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं। इनकी छवि घोड़े पर सवार, एक राजा के समान दिखाई देती है। इन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पाँच पीरों की प्रतिष्ठा है, उनमें से एक रामसा पीर का विशेष स्थान है। पोकरण से 12 किलोमीटर की दूरी पर जोधपुर जैसलमेर मार्ग पर ’रामदेवरा मंदिर’ स्थित है।अधिकांश लोग यह मानते हैं कि यह मंदिर भगवान राम को समर्पित है, पर वास्तव में यह प्रसिद्ध संत बाबा रामदेव को समर्पित है। यह मंदिर बाबा रामदेव के अन्तिम विश्राम का स्थान का माना जाता है। सभी धर्मों के लोग यहां यात्रा के लिए आते हैं। यहां अगस्त और सितम्बर के बीच, ’रामदेवरा मेले’ के नाम से एक बड़ा लोकप्रिय मेला आयोजित किया जाता है। बड़ी संख्या में भक्त यहां आकर रात भार भक्तिपूर्ण गीत गाते हैं।

                                               जैसलमेर वॉर म्यूज़ियम



‘यदि आपने आज खाना खाया तो आप किसान को धन्यवाद दीजिए और यदि शांति से खाना खाया तो सैनिक को धन्यवाद दीजिए।’ हमारी सेना और सुरक्षा बल अपना जीवन रोज़ाना मुश्किलें और परेशानियों झेलकर गुज़ारते हैं ताकि भारत के नागरिक चैन की नींद सो सकें। जैसलमेर के मिलिट्री बेस पर एक ऐसा म्यूज़ियम बनाया गया है, जहाँ हम आदर के साथ उन सैनिकों को धन्यवाद देते हुए उन्हें सम्मान दे सकें। इस म्यूज़ियम में उन सैनिकों का धन्यवाद देते हुए, उन्हें सम्मान दे सकें। इस म्यूजियम में उन सैनिकों के द्वारा दिए गए बलिदान और उनके शौर्य को दर्शाने हेतु इस म्यूजियम को बड़े सलीक़े से सजाया गया है। यहाँ प्रदर्शित प्रत्येक वस्तु उन सैनिकों के बलिदान को मूर्तरूप से उजागर करती है, जिन्होंने सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध तथा सन् 1971 में हुए लांेगेवाला युद्ध के दौरान अपना जीवन क़ुर्बान किया था। इस म्यूज़ियम के दर्शन करने से आपको भारतीय सेना द्वारा अधिग्रहीत टैंक तथा युद्ध में काम आए अन्य साज़ो-सामान देखने को मिलेगा, जो आपको गौरवान्वित कर देगा। यहाँ एक ऑडियो - विज़ुअल कक्ष भी है, जिसमें आपको युद्ध सम्बन्धी फिल्में दिखाई जाती हैं। लोंगेवाला युद्ध में महत्वपूर्ण रूप से भागीदारी निभाने वाले मेज़र कुलदीप सिंह चंदपुरी का इन्टरव्यू भी आप यहाँ देख सकते हैं। जिसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार हमारे सैनिकों ने किस बहादुरी के साथ लोंगेवाला युद्ध लड़ा था। इस म्यूज़ियम में बहुत सी वॉर ट्रॉफीज़, पुराने उपकरण, टैंक, बन्दूकें, लड़ाकू गाड़ियाँ तथा हथियार प्रदर्शित किए गए हैं। एयर-फोर्स द्वारा उपहार स्वरूप दिया गया ‘हन्टर-एयरक्राफ्ट’ जो कि लोंगेवाला युद्ध के दौरान सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध में काम में लिया गया था, भी यहाँ देखा जा सकता है। हमारे देश के महत्वपूर्ण युद्ध इतिहास को संजोए हुए यह म्यूज़ियम जैसलमेर-जोधपुर हाइवे पर स्थित है तथा इसमें फ्री-एन्ट्री, निःशुल्क प्रवेश है, यानि इसे देखने का कोई टिकिट/चार्ज़ नहीं लगता।

                                                लोंगेवाला वॉर मेमोरियल



पश्चिमी क्षेत्र में सन् 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान, लांेगेवाला का युद्ध सबसे बड़ा साहसिक कार्य था तथा यह अजेय-बाधाओं को पार करते हुए, हिम्मत और बहादुरी से की गई जंग की प्रेरणादायी कहानी है। यह इतिहास 4 दिसम्बर 1971 को बनाया गया ’बहादुरी और शौर्य’ का वह उदाहरण है, जब भारतीय सैनिकों ने पाक के लगभग 2000 सैनिकों और 60 टैंकों को खदेड़ दिया था।लोंगेवाला में हमारे डैज़र्ट कॉपर््स ने यह लोंगेवाला वॉर मेमोरियल अपनी उस जीत का जश्न मनाने के लिए बनाया, जिसमें उन्होंने अपने दृढ़़ संकल्प से पाक की फौजों का भारतीय सीमा के अन्दर घुसने का प्रयास विफल कर दिया था। आप जब इस म्यूज़ियम को देखेंगे तो आप हमारे बहादुर जवानों की वीरता, शौर्य और पराक्रम के उदाहरण देखकर गौरवान्वित महसूस करेंगे।

                                                   अमर सागर लेक



जैसलमेर के पश्चिमी क्षेत्र में लगभग 7 कि.मी. दूरी पर अमर सागर लेक स्थित है जो कि अमर सिंह पैलेस के पास ही है। 17वीं शताब्दी में बनवाया गया यह महल झील पत्थर के नक्काशीदार जानवरों के मुखौटो से घिरा है, जिन्हें शाही परिवार का संरक्षक माना जाता है। यह शाही महल राजा महारावल अखाई सिंह द्वारा अमर सिंह के सम्मान में बनवाया गया था।  इस महल में मंडप हैं जहाँ से सीढ़ियां अमर सागर झील की तरफ जाती हैं। पर्यटक इस पाँच मंज़िला इमारत की दीवारों पर आकर्षक भित्ति चित्र देख सकते हैं। इसके परिसर में कई तालाब, कुंए और मंदिर हैं। बडे़ ही शांत और सौम्य वातावरण वाले अमर सागर से, आप जैसलमेर का सबसे ख़ूबसूरत सूर्यास्त का नज़ारा भी देख सकते हैं।

                                  डेजर्ट सफारी



जैसलमेर पर्यटकों द्वारा अक्सर देखा जाने वाला स्थान है। पर्यटकों की कुल संख्या में से लगभग 95% पर्यटक डेजर्ट सफारी के लिए जाते हैं। चिलचिलाती गर्मी से बचने के लिए डेजर्ट सफारी की यात्रा सुबह या शाम के समय आयोजित की जाती हैं। इसके अलावा पर्यटक एक के बाद एक सफारी यात्रा के साथ जिप्सी, संगीत, नृत्य कार्यक्रम के साथ एक स्वादिष्ट भोजन का आनंद ले सकते हैं।जैसलमेर अपनी सुनहरी रेत के साथ और अधिक सुंदर दिखाई देता है। यहां कैमल सफारी और जीप सफारी की सुविधा दी जाती है। कैमल सफारी में, 90 मिनट की यात्रा कराई जाती है। जबकि जीप सफारी में कम से कम 45 किमी की यात्रा कराई जाती है। जैसलमेर घूमने और रेगिस्तान सफारी के लिए जाने का सबसे अच्छा समय नवंबर और मार्च के महीनों के बीच का होता है क्योंकि तापमान ठंडा रहता है और इसलिए दर्शनीय स्थल की यात्रा आरामदायक हो जाती है।


                                   सैम सैंड ड्यून्स



सैम सैंड ड्यून्स राजस्थान के सभी ऐतिहासिक किलों और रंगीन बाजारों के बीच एक प्राकृतिक पर्यटन स्थल है। गोल्डन सिटी जैसलमेर से लगभग 40-42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सैम सैंड ड्यून्स उन लोगों द्वारा देखे जाते हैं, जो पारंपरिक स्थल से दूर हटने के लिए एकांत तलाशते हैं और खुले आसमान के नीचे कुछ समय बिताना चाहते हैं। यहां आपको 30 से 60 मीटर लंबे रेत के टीले मिलते हैं और टीले मिलेंगे और कई पर्यटक ऊंठ और जीप सफारी का आनंद लेते दिखेंगे।सैम रेत के टीलों तक पहुंचने का सबसे अच्छा समय शाम का समय लगभग 4 से 7 बजे या सुबह के 4 से 6 बजे के सूर्योदय के समय रेगिस्तान सूर्यास्त का आनंद लेने के लिए है।सैम घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के महीनों तक होता है क्योंकि इसके बाद सभी सभी शिविर बंद हो जाते हैं और केवल कुछ ही ऊंट सवार उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा, रेगिस्तान शिविरों में सैम सैंड ड्यून्स में शाम का संगीत कार्यक्रम गर्मियों और मानसून के महीनों में उपलब्ध नहीं होता ।

                     ताज़िया टॉवर और बादल महल



जैसलमेर का ताजिया टॉवर निश्चित रूप से जैसलमेर के पर्यटन आकर्षणों में से एक है। यदि आप राजपुताना आर्किटेक्चर के शौकीन हैं, तो ताज़िया टॉवर आपके लिए एक अनुभव होगा। यह अमर सागर गेट के पास स्थित उत्कृष्ट ‘सुंदर बादल महल’ परिसर में स्थित है।ताज़िया टॉवर विभिन्न मुस्लिम इमामों के मकबरे की प्रतिकृति है जो मकबरे की दीवारों पर जटिल नक्काशी के साथ है थर्मोकोल, लकड़ी और रंगीन कागज से बने समृद्ध प्राचीन कला को दर्शाता है। ये मुस्लिम कारीगरों द्वारा निर्मित राजस्थान के शाही परिवारों के घर थे, जिन्होंने इसे अपने धर्म के प्रतीक के रूप में ताज़िया का आकार दिया। यह 5 मंजिला का एक टॉवर है, और प्रत्येक मंजिल एक अलग कहानी बताती है।प्रत्येक मंजिल में एक बालकनी है जो अपने डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि वास्तुकारों ने इसे प्यार और सम्मान के साथ तत्कालीन शाही संरक्षकों को उपहार में दिया।


                                   व्यास छत्री



व्यास छत्री एक सनसेट पॉइंट है, जहां से आपको सीधे जैसलमेर के किले के दर्शन होंगे। आप रामगढ़ रोड से व्यास छत्री में प्रवेश कर सकते हैं, जो हिम्मतगढ़ पैलेस होटल के सामने है। यह ब्राह्मण कब्रिस्तान के भीतर उत्तर पश्चिमी किनारे के शहर में स्थित हैव्यास छत्री बलुआ पत्थर से निर्मित राजस्थानी वास्तुकला का एक प्रतीक है। यह 300,000 लंबे महाकाव्य महाभारत के लेखक ऋषि व्यास को समर्पित था, जिसका किला किले के उत्तर में स्थित है। यह लोकप्रिय रूप से सूर्यास्त बिंदु के शहर के रूप में जाना जाता है। नक्काशी और ऊंचे गुंबद के आकार के मंडप देखने लायक हैं व्यास छत्री उन पर्यटकों के लिए अच्छा विकल्प है जो बलुआ पत्थरों की सरंचनाओं के बीच रेगिस्तान में सूर्यास्त को देखने की चाह रखते हैं।

                                 खाबा किला


कुलधरा गांव के पास स्थित खाबा किला एक परित्यक्त संरचना है जो जैसलमेर में एक और भयानक स्थान है। यह किला फोटोग्राफी के शौकीनों के लिए अच्छा है और यह जैसलमेर में घूमने के लिए बेहतरीन जगहों में से एक है। यह किला पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा बसाया गया था।ये रहस्यवादी गांव 13वीं शताब्दी का है। ऐसा माना जाता है कि जब पालीवाल ब्राह्मणों ने गांव को वीरान कर दिया था, तब उन्होंने इस किले को भी बंद कर दिया था।किले में आपको अद्भुत मनोरम दृश्य देखने को मिलते हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जिसमें कई शताब्दियों की दुर्लभ कलाकृतियाँ मौजूद हैं। इसका मुख्य आकर्षण मोरों का झ़ुंड है। इसमें प्राचीन कलाकृतियों और विभिन्न प्रकार के रॉक जीवाश्मों के साथ एक छोटा संग्रहालय भी है। आज इस किले में खंडहर के अलावा खंडहर के अलावा कुछ भी नहीं है।

 

                                      भारत-पाक सीमा जैसलमेर



जैसलमेर से 350 किमी दूर भारत-पाकिस्तान सीमा जैसलमेर में सबसे अधिक देखने वाले पर्यटन स्थल में से एक है। यह क्षेत्र तनोट माता मंदिर के पास स्थित है और भारतीय सैन्य बलों से पूर्व अनुमति और परमिट के द्वारा यहां जाया जा सकता है। प्राचीन काल से, इस क्षेत्र का उपयोग यात्रियों द्वारा अन्य देशों में वस्तुओं को देखने और निर्यात करने के लिए किया जाता था।  अब इस क्षेत्र में सीमा स्तंभ संख्या 609 है जो भारत-पाक सीमा पर नियंत्रण रेखा के पास नो मैन्स लैंड में स्थित है। केवल भारतीयों को बीपी 609 तक जाने की अनुमति है वह भी बीएसएफ अधिकारियों की उचित अनुमति के बाद। यहां पर जाना तभी संभव है जब आप अपने वाहन से जा रहे हों। 

                                शांतिनाथ मंदिर 



शांतिनाथ मंदिर जैसलमेर किले के अंदर स्थित है। यह मंदिर अपनी शानदार स्थापत्य शैली और उल्लेखनीय बलुआ पत्थर की नक्काशी के लिए जाता है। यह मंदिर श्री शांतिनाथ को समर्पित है, जिसे जैन तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है और यह स्वर्ण किले के भीतर सात प्रमुख जैन मंदिरों में से एक है।यह अति सुंदर नक्काशी के साथ दिलवाड़ा शैली में बनाया गया है। हर साल हजारों भक्त मंदिर में आते  हैं। 16 वीं शताब्दी का यह मंदिर अपने विश्वासियों के बीच एक धार्मिक महत्व रखता है। कुल 24 तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं जो इस मंदिर के अंदर रखी गई हैंयह माना जाता है कि संत उन लोगों की इच्छाओं को पूरा करते हैं जो प्रार्थना करते हैं। मंदिर हर साल जैन पर्यटकों को आमंत्रण देता है

                                        चंद्रप्रभु मंदिर



चंद्रप्रभु मंदिर 16 वीं शताब्दी में बना एक अनुकरणीय जैन मंदिर है। यह उन सात मंदिरों में से एक है जिनका निर्माण 8 वें तीर्थंकर जैन पैगंबर चंद्रप्रभु जी के लिए किया गया था। जैसलमेर किले के अंदर स्थित यह जैन तीर्थस्थल वर्ष 1509 के आसपास का है। स्वर्ण किले के अंदर स्थित, चंद्रप्रभु मंदिर वास्तुकला की एक प्राचीन राजपूत शैली का प्रतीक है। लाल पत्थर से बना जैन तीर्थ सुंदर गलियारों के साथ जटिल डिजाइन में उकेरा गया है। आंतरिक रूप से बारीक मूर्तियों वाले खंभों की एक श्रृंखला बनाई जाती है।


                                            लोद्रवा


लोद्रवा, जिसे लोदुरवा या लोदरवा के नाम से भी जाना जाता है, भारत के राज्य राजस्थान के जैसलमेर जिले का एक गाँव है। यह लोकप्रिय शहर जैसलमेर के उत्तर-पश्चिम में 15 किलोमीटर दूर है। लोद्रवा 1156 ईस्वी तक भट्टी राजवंश की प्राचीन राजधानी थी जब रावल जैसल ने जैसलमेर राज्य की स्थापना की और राजधानी को जैसलमेर स्थानांतरित कर दिया। यह गाँव एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है, जो अपने स्थापत्य खंडहरों और आसपास के रेत के टीलों के लिए जाना जाता है। 
यह जैन मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है, जो 23 वें तीर्थंकर को समर्पित है, पार्श्वनाथ 1152 ईस्वी में तबाह हो गए जब मुहम्मद गोरी ने शहर को बर्खास्त कर दिया था लेकिन 1615 में सेठ थारू शाह द्वारा पुनर्निर्माण किया गया था। इस जगह से जुड़ी एक और कहानी राजकुमारी मूमल और महेंद्र की प्रेम कहानी थी जो अक्सर स्थानीय लोककथाओं में सुनाई जाती है। यह किला जैसलमेर में एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है, जहाँ ऋषभनाथ मंदिर और सांभवननाथ मंदिर करीब एक साथ स्थित हैं। 20 वीं शताब्दी के अंत में मंदिरों का पुनर्निर्माण किया गया था जो अब भी शहर के पूर्व गौरव की याद दिलाता है। लोधुरवा में अन्य आकर्षण हिंगलाज माता मंदिर और चामुंडा माता मंदिर हैं।



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